संपादकीय: नीति शून्यता में उलझा झारखंड, उम्मीदों की तलाश में जनता

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खबर झारखंड: झारखंड को राज्य बने दो दशक से अधिक हो गए हैं। संसाधनों के लिहाज से यह राज्य देश का सबसे युवा और सबसे समृद्ध राज्यों में गिना जाता है। लेकिन अफसोस, इतने वर्षों बाद भी झारखंड अपनी नीतिगत प्राथमिकताओं को स्पष्ट नहीं कर पाया है। न तो स्थानीय नीति पूरी तरह लागू हो पाई है, न नियोजन नीति टिक पाई है, और न ही खेल, स्वास्थ्य या शिक्षा जैसे मूलभूत क्षेत्रों में कोई स्थायी ढांचा खड़ा हो सका है। सबसे बड़ा संकट यह है कि जनता की उम्मीदें, घोषणाओं की राजनीति में उलझ कर रह गई हैं।

स्थानीय नीति और नियोजन: अनिश्चितता का दंश

झारखंड के युवाओं को अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि सरकारी नौकरी में किसे स्थानीय माना जाएगा और किसे नहीं। स्थानीयता पर बनी नीतियां या तो न्यायिक अड़चनों में फंसी हैं या राजनीतिक खींचतान में उलझी हुई हैं। इसका सीधा असर उन नौजवानों पर पड़ रहा है जो वर्षों से प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। इसी तरह नियोजन नीति बार-बार बदले जाने और अटकने के कारण भर्ती प्रक्रिया वर्षों तक ठप रहती है। इसका परिणाम है बेरोजगारी और हताशा, और इससे उपजता है पलायन, जो झारखंड की सामाजिक संरचना को कमजोर करता है।

खेल, स्वास्थ्य और शिक्षा की उपेक्षा

जिस राज्य ने ओलंपिक स्तर के हॉकी खिलाड़ी दिए, वहां कोई स्थायी खेल नीति नहीं है। गांवों में प्रतिभाएं हैं, लेकिन उन्हें प्रशिक्षण और अवसर नहीं मिलते। खेल केवल सरकारी पोस्टर तक सीमित रह गए हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा की स्थिति भी चिंताजनक है। सरकारी अस्पतालों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में दवाओं का टोटा और ग्रामीण इलाकों में सुविधाओं का अभाव आम बात है। शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षकों की भारी कमी, विद्यालयों की जर्जर स्थिति और खराब परिणाम राज्य की नई पीढ़ी के भविष्य को प्रभावित कर रहे हैं।

भ्रष्टाचार सबसे बड़ी बाधा

इन तमाम समस्याओं के बीच सबसे बड़ा संकट भ्रष्टाचार है। योजनाओं से लेकर ज़मीन आवंटन और ठेकेदारी तक, भ्रष्टाचार ने प्रशासन को अंदर से खोखला कर दिया है। कई जनप्रतिनिधि और अधिकारी जांच एजेंसियों के निशाने पर हैं, लेकिन दोषियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई की गति धीमी है। इससे जनता का विश्वास कमजोर हुआ है और शासन के प्रति निराशा बढ़ी है।

झारखंड में अब क्या हो?

झारखंड को अब भाषणों और घोषणाओं से आगे बढ़कर ठोस नीति निर्माण और प्रभावी क्रियान्वयन की ओर बढ़ना होगा। स्थानीयता पर स्पष्ट नीति, स्थायी नियोजन नीति, खेल के लिए रोडमैप, स्वास्थ्य-शिक्षा में निवेश, और भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कार्रवाई। ये केवल जरूरी नहीं, बल्कि अब अनिवार्य हो चुके हैं। राज्य की राजनीति को यह समझना होगा कि सत्ता की कुर्सी से ज्यादा जरूरी जनता का विश्वास है। झारखंड को ऐसे नेतृत्व की जरूरत है, जो सिर्फ वादे न करे, बल्कि उन वादों को नीति में बदले और ज़मीन पर उतारे।

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