जिसका भी भाव बढ़ जाये, उसे त्याग दो, क्या यही है नया जीवन दर्शन?

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समाज में तेजी से बदलती प्राथमिकताओं और उपभोक्तावादी सोच ने हमारे जीवन मूल्यों को गहराई से प्रभावित किया है। अब रिश्ते भी बाजार की वस्तुओं की तरह तौलने लगे हैं। एक कहावत-सी बन गई है- “जिसका भी भाव बढ़ जाये, उसे त्याग दो, चाहे वो सामान हो या इंसान!” यह कथन सुनने में जितना व्यावहारिक लगता है, उतना ही यह हमारे सामाजिक और नैतिक ढांचे को खोखला करता है।

भाव बढ़ने का अर्थ क्या है?

‘भाव’ यानी कीमत। जब कोई वस्तु अपनी मूल कीमत से अधिक पर बिकने लगे, तो उपभोक्ता उसे त्याग देता है या उसका विकल्प खोजता है। यही दृष्टिकोण अब संबंधों में भी झलकने लगा है। कोई व्यक्ति आत्मसम्मान की बात करे, अधिकार मांगे, या अपनी सीमाएं तय करे तो उसे ‘भाव खाने वाला’ मानकर दरकिनार कर दिया जाता है।

क्या इंसान वस्तु बन गया है?

सवाल यह है कि इंसान को भी अब ‘उपयोग’ की चीज माना जाने लगा है क्या? जब तक कोई सुविधा दे रहा है, साथ अच्छा है। जैसे ही कोई अपनी शर्तें रखने लगे या ‘मूल्य’ बढ़ाने लगे, लोग उससे दूरी बना लेते हैं। यह प्रवृत्ति न केवल संबंधों को तोड़ रही है, बल्कि एकल, आत्मकेंद्रित समाज को जन्म दे रही है।

त्याग नहीं, संवाद जरूरी

अगर कोई इंसान खुद की अहमियत समझता है और अपने लिए बेहतर की मांग करता है, तो क्या उसे त्याग देना ही विकल्प है? रिश्तों में भावनाएं होती हैं, निवेश होता है, त्यागने से पहले संवाद ज़रूरी है। हो सकता है ‘भाव’ बढ़ने के पीछे कोई पीड़ा, संघर्ष या आत्म-सम्मान की लड़ाई हो।

जीवन बाजार नहीं

यह जरूरी है कि हम जीवन को केवल ‘लेन-देन’ की दृष्टि से न देखें। भावनाएं, संबंध, आदर्श, ये कोई मोल-भाव की चीज़ नहीं। अगर हर किसी को सिर्फ कीमत के आधार पर आंकने लगे, तो हमारे जीवन से स्थायित्व और विश्वास दोनों खत्म हो जाएंगे। “जिसका भाव बढ़ जाये, उसे त्याग दो” यह सोच आज की व्यावहारिक दुनिया में शॉर्टकट की तरह दिखती है, लेकिन यह गहरी संवेदनहीनता की ओर ले जाती है। हमें वस्तुओं और इंसानों में फर्क समझना होगा। वस्तु बदल सकती है, लेकिन इंसान को समझा जा सकता है। संवाद, सहानुभूति और संयम, यही किसी भी संबंध को मूल्यवान बनाते हैं।

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