झारखंड लोक सेवा आयोग (जेपीएससी) के हालिया परीक्षा परिणाम घोषित हुए। निःसंदेह, चयनित अभ्यर्थियों ने कठोर परिश्रम किया होगा। यह उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि है, जो सराहनीय है। लेकिन एक नागरिक समाज के रूप में हमारे लिए महत्वपूर्ण यह नहीं कि वे चयनित हुए हैं, बल्कि यह है कि वे क्यों चयनित हुए हैं। लोक सेवा आयोग जैसी परीक्षाओं का उद्देश्य प्रशासनिक तंत्र को सक्षम, संवेदनशील और जनोन्मुखी नेतृत्व देना है। अधिकारी वही, जिनसे हम अपेक्षा करते हैं कि वे शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था, वित्तीय अनुशासन और शासन के तमाम मोर्चों पर जनता के हितों की रक्षा करें। लेकिन जब हम जश्न मनाते हैं, तो क्या वास्तव में हम जनसेवा की भावना का उत्सव मना रहे होते हैं?
दुर्भाग्यवश, नहीं। आज का जश्न सेवा भावना के लिए नहीं, बल्कि संभावित पद, प्रतिष्ठा और रसूख के लिए है। हमारी सामूहिक चेतना चयन को ही अंतिम उपलब्धि मान बैठी है। हम यह भूल जाते हैं कि इन पदों पर बैठे लोग वही “सिस्टम” चलाते हैं जिसकी असफलता की शिकायतें हम हर दिन करते हैं। आश्चर्य की बात नहीं कि झारखंड जैसे राज्य में, जहाँ शासन की असंवेदनशीलता पर निरंतर सवाल उठते हैं, वहीं हम उन्हीं अधिकारियों के चयन पर गौरवान्वित भी होते हैं। कई बार यही अधिकारी बाद में भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरते हैं, और तब हम उसी समाज का हिस्सा होते हैं जिसने उनके चयन पर पटाखे फोड़े थे।
यह समय है आत्मावलोकन का। चयन पर नहीं, सेवा पर जश्न मनाने की संस्कृति विकसित करनी होगी। नागरिक के रूप में हमारा उत्साह तब मुखर हो जब अधिकारी अपने कार्यों से समाज में ठोस बदलाव लाएं। जब शिक्षा सुधरे, स्वास्थ्य सुविधाएं गाँव तक पहुँचे, प्रशासन संवेदनशील हो, और जनता की शिकायतों का संज्ञान लेकर समाधान हो। लोक सेवा में चयन किसी का निजी उत्कर्ष हो सकता है, लेकिन यह तब तक सामाजिक गर्व का विषय नहीं होना चाहिए जब तक चयनित व्यक्ति जनसेवा को अपना धर्म न बना ले। और यही नागरिक चेतना एक जिम्मेदार, उत्तरदायी और ईमानदार प्रशासन की नींव रख सकती है।