आज, 09 जुलाई 2025 को देशभर में श्रमिक संगठनों द्वारा आहूत हड़ताल महज़ एक प्रतिरोध का स्वर नहीं है, बल्कि यह उस गहरी पीड़ा और असुरक्षा की अभिव्यक्ति है जो आज देश के करोड़ों श्रमिकों, कर्मचारियों और कामकाजी वर्गों के भीतर पल रही है। देश की आर्थिक नीतियों की दिशा पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से बदली है। निजीकरण, ठेका प्रणाली, अस्थायी रोजगार, और श्रम कानूनों में एकतरफा संशोधन जैसी पहलें जहां एक ओर पूंजी के हितों को मजबूत कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर मेहनतकश वर्ग को हाशिये पर ढकेल रही हैं। स्थायी नौकरी का सपना अब सिर्फ़ बीते कल की बात बनती जा रही है।
हड़ताल की प्रमुख मांगे- श्रम कानूनों में जनविरोधी संशोधनों पर रोक, महंगाई पर नियंत्रण, सार्वजनिक संस्थानों की रक्षा, न्यूनतम वेतन में बढ़ोतरी, और सामाजिक सुरक्षा की गारंटी, सिर्फ श्रमिक वर्ग की नहीं, बल्कि देश की व्यापक जनता की साझा मांगे हैं। यह मांगे न तो नई हैं और न ही अव्यावहारिक। ये वही मुद्दे हैं जो हर आम नागरिक को छूते हैं। चाहे वह किसान हो, बेरोज़गार युवा हो, छोटा व्यापारी हो या मध्यम वर्गीय कर्मचारी। यह हड़ताल एक चेतावनी है कि अगर विकास सिर्फ आंकड़ों तक सीमित रहा, और ज़मीन पर जीवन की गारंटी नहीं दे सका, तो असंतोष की आवाज़ें और तेज़ होंगी। यह भी सच है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में संवाद का रास्ता हमेशा खुला होना चाहिए। सरकार और प्रशासन को यह समझने की ज़रूरत है कि सिर्फ़ निवेश बढ़ाना ही विकास नहीं होता। सामाजिक संतुलन, आर्थिक न्याय और रोज़गार की सुरक्षा के बिना कोई भी विकास अधूरा है। आज जब 25 करोड़ से अधिक मज़दूर हड़ताल पर हैं, तो यह सिर्फ़ काम रोकने की कार्रवाई नहीं, बल्कि नीति निर्माताओं के लिए एक साफ़ संदेश है कि समय रहते अगर सामाजिक न्याय और श्रम के सम्मान को प्राथमिकता नहीं दी गई, तो असंतुलन और असंतोष दोनों ही गहराते जाएंगे। यह हड़ताल एक सवाल है, क्या देश का विकास केवल गिने-चुने हाथों तक सीमित रहेगा, या फिर उस हाथ की भी कद्र होगी जो कुदाल से लेकर मशीन तक सब चलाता है?