झारखंड की राजनीति एक बार फिर प्रवर्तन निदेशालय (ED) की सक्रियता के केंद्र में आ गई है। हाल के दिनों में एक के बाद एक छापों, गिरफ्तारी, पूछताछ और जब्ती की ख़बरें आम हो गई हैं। चाहे वह खनन घोटाले से जुड़ा मामला हो, भूमि खरीद-बिक्री में फर्जीवाड़ा, या राजनीतिक पदाधिकारियों के ठिकानों पर छापेमारी, ईडी का नाम अब राज्य की राजनीति और प्रशासन के हर कोने में गूंजने लगा है। ईडी की यह सक्रियता लोकतंत्र के उस पक्ष को दर्शाती है, जहां संवैधानिक संस्थाएं भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक भूमिका निभा रही हैं। लेकिन इसके समानांतर यह सवाल भी तेजी से उठ रहा है कि क्या ये कार्रवाइयां निष्पक्ष जांच के दायरे में आती हैं, या इसके पीछे कोई राजनीतिक रणनीति छिपी है?
कानून का डर या विपक्ष की घेराबंदी?
ईडी की अधिकांश कार्रवाइयां विपक्षी दलों से जुड़े नेताओं, अफसरों या उनके नजदीकी लोगों के खिलाफ होती रही हैं, विशेषकर झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस से जुड़े चेहरे लगातार जांच एजेंसियों के घेरे में हैं। यही कारण है कि राज्य के सत्ताधारी दल इसे “राजनीतिक बदले की कार्रवाई” बताकर केंद्र सरकार पर संस्थाओं के दुरुपयोग का आरोप लगाते हैं। हालांकि यह भी उतना ही सच है कि झारखंड लंबे समय से खनन, भूमि घोटाले और अफसरशाही में गहराते भ्रष्टाचार से जूझता रहा है। ऐसे में यदि कोई जांच एजेंसी कार्रवाई करती है तो उसे महज़ साजिश कहना भी लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था के लिए हानिकारक है।
जनता की नजर में छवि का संकट
झारखंड के नागरिक इन घटनाओं को केवल कानून की नजर से नहीं, बल्कि राजनीतिक माहौल और सत्ताओं की नीयत से जोड़कर देखने लगे हैं। बार-बार की छापेमारी, नेताओं के आवासों से बरामद बड़ी नकदी, ज़मीन के दस्तावेज़, सोना और फर्जी कंपनियों की पोल, ये सब प्रशासनिक पारदर्शिता की कमी और राजनीति में सत्ता-संपत्ति के गठजोड़ को उजागर करते हैं। वहीं दूसरी ओर, विपक्ष इसे चुनावी मौसम में राजनीतिक दलों को कमजोर करने की “टूलकिट” मानता है। यह द्वंद्व आम जनता में भ्रम और अविश्वास की स्थिति पैदा करता है जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।
क्या चाहिए?
ईडी जैसी जांच एजेंसियों की कार्रवाई पारदर्शी, साक्ष्य आधारित और समयबद्ध होनी चाहिए। सिर्फ एक वर्ग या दल को निशाना बनाने का आभास एजेंसी की विश्वसनीयता को कमजोर करता है। राज्य सरकारों को भी अपने स्तर पर भ्रष्टाचार के विरुद्ध स्पष्ट नीति और नीयत दिखानी होगी। झारखंड में ईडी की सक्रियता केवल कानून की कार्रवाई नहीं है, यह उस विश्वास का परीक्षण भी है, जो जनता ने लोकतंत्र, पारदर्शिता और जवाबदेही में जताया है। यदि यह कार्रवाई सच्चे अर्थों में भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए है, तो इसे राजनीतिक रंग से बचाया जाना चाहिए। लेकिन यदि यह केवल राजनीतिक दबाव का उपकरण बनती है, तो यह न सिर्फ लोकतंत्र, बल्कि संस्थाओं की आत्मा को भी चोट पहुंचाएगी।