क़र्बला का नाम आते ही आंखें नम हो जाती हैं और दिल एक दर्दनाक इतिहास की गहराइयों में उतर जाता है। यह मंज़र महज़ एक जंग का नहीं, बल्कि हक़ और बातिल के दरमियान हुए एक ऐसे इम्तिहान का है जहाँ ताज और तख़्त नहीं, बल्कि ईमान, सब्र, वफ़ा और इंसानियत को बचाने की जद्दोजहद थी।
तपता हुआ मैदान और प्यास की तड़प
61 हिजरी का वो मोहर्रम, कर्बला की तपती रेत, जहां सूरज आसमान से आग बरसा रहा था और ज़मीन से धुएँ उठ रहे थे। इमाम हुसैन (अ.स) का क़ाफ़िला- जिसमें बच्चे, बुज़ुर्ग, और औरतें शामिल थीं- तीन दिनों की शिद्दत भरी प्यास में भी अल्लाह की बंदगी में मग्न थे। यज़ीद की फौज ने पानी के क़तरे तक को रोक दिया था। बच्चे “अल-अतश! अल-अतश!” (प्यास! प्यास!) की पुकार करते रहे, लेकिन हुसैन (अ.स) का सब्र और सज्दा कमज़ोर न हुआ।
एक-एक फूल शहीद होता गया
पहले हज़रत अली अकबर (अ.स) का जाना, फिर क़ासिम, फिर अब्बास अलमदार- हर शहादत अपने साथ एक आह, एक ज़ख़्म, और एक सबक़ छोड़ती गई। हज़रत अब्बास (अ.स) पानी लाने निकले मगर दोनों हाथ कटवा दिए। फिर भी मश्क नहीं छोड़ा- यही थी वफ़ा की इंतिहा। छह महीने के मासूम अली असग़र जब प्यास से बेहाल होकर बाबा की गोद में बिलबिलाने लगे, तो हुसैन (अ.स) ने उन्हें यज़ीद की फौज के सामने पेश किया। जवाब में एक तीखा तीर- जो शहज़ादे की गर्दन से पार हो गया। यह मंज़र इंसानियत की पेशानी पर आज भी एक टीस बनकर दर्ज है।
हुसैन का सजदा और आख़िरी कुर्बानी
जब सारे साथी शहीद हो गए, इमाम हुसैन (अ.स) तन्हा रह गए। लेकिन उस तन्हाई में भी उन्होंने न तो हथियार डाले, न ही जालिम के सामने झुके। उन्होंने आख़िरी नमाज़ अदा की, और सजदे में ही उनका सर क़लम कर दिया गया। सर ज़मीन पर नहीं झुका, बल्कि अल्लाह के दर पर सजदे में था। यही था हुसैन- जो हार कर भी फ़ातेह था।
बीबी ज़ैनब (स.अ): सब्र की बुलंद मिसाल
क़र्बला के बाद जो सबसे बड़ा मंज़र था, वह ज़ैनब (स.अ) का था। जब सब कुछ उजड़ चुका था, औरतें बेपरदा हो चुकी थीं, तो ज़ैनब (स.अ) यज़ीद के दरबार में खड़ी होकर यह कहती हैं:
“मैंने कर्बला में कुछ नहीं देखा, सिवाय ख़ूबसूरती के!”
उनकी यह अज़मत बताती है कि कर्बला की लड़ाई मैदान में नहीं खत्म हुई, वो हर दरबार में, हर ज़ुल्म के खिलाफ आज भी जारी है।
कर्बला: हर युग के लिए एक पैग़ाम
कर्बला का मंज़र हमें सिखाता है कि सच के लिए लड़ना, ज़ालिम के सामने झुकना नहीं, और ज़मीर को ज़िंदा रखना ही असली जीत है। हुसैन (अ.स) सिर्फ एक नाम नहीं, एक विचारधारा हैं- जो हर दौर में ज़िंदा है।
“क़त्ल-ए-हुसैन असल में मर्ग-ए-यज़ीद है,
इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद।”