झारखंड सरकार द्वारा शुरू की गई “मुख्यमंत्री मंईयां सम्मान योजना” एक भावनात्मक और प्रतीकात्मक पहल के रूप में सामने आई थी। उद्देश्य था- महिलाओं को सम्मान और आर्थिक संबल देना। लेकिन हाल के दिनों में यह योजना सियासी विमर्श, प्रशासनिक प्राथमिकता और बजट वितरण के केंद्र में इस हद तक आ गई है कि प्रश्न उठने लगे हैं कि क्या झारखंड की पूरी शासन-व्यवस्था इसी एक योजना पर ठहर गई है?
सम्मान ज़रूरी है, लेकिन बाकी ज़रूरतें भी क्या कम हैं?
कोई भी समाज महिलाओं के सम्मान से इंकार नहीं कर सकता। लेकिन जब राज्य के संसाधन सीमित हों, और बेरोज़गारी, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, उद्योग और कानून-व्यवस्था जैसे क्षेत्र संकट में हों, तब किसी एक योजना को लेकर अति-केंद्रित हो जाना राजनीतिक संतुलन और शासन की प्राथमिकता पर सवाल खड़े करता है।झारखंड में इस समय स्थानीय नीति अटकी हुई है, नियोजन नीति अदालत में चुनौती झेल रही है, और हज़ारों युवाओं को रोजगार का इंतजार है। ऐसे में यदि प्रशासनिक मशीनरी, मीडिया प्रचार और बजट का बड़ा हिस्सा सिर्फ “मंईयां सम्मान” जैसे भावनात्मक कार्यक्रम पर लग जाए, तो यह विकास की वास्तविक धुरी से भटकाव माना जाएगा।
राजनीति बनाम जननीति
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इस योजना को राजनीतिक पूंजी के रूप में आगे बढ़ाया है, जो चुनावी दृष्टि से रणनीतिक हो सकता है। लेकिन जब यह योजना नीति-निर्माण से ज़्यादा इवेंट-मैनेजमेंट बन जाए, और इसका उपयोग जनकल्याण से अधिक प्रचार के लिए हो, तो यह गंभीर आलोचना का विषय बन जाता है।
सवाल यह भी है कि क्या इस योजना के तहत लाभार्थियों का चयन पारदर्शी है? क्या यह योजना स्थायी सामाजिक सुरक्षा ढांचे का हिस्सा है, या सिर्फ चुनावी वर्ष की भावना-प्रधान रचना था?
झारखंड ठप है या योजनाओं की दिशा उलझी है?
ऐसा नहीं है कि “मंईयां सम्मान योजना” से झारखंड ठप हो गया है। लेकिन यह जरूर है कि योजनाओं की संतुलन और प्राथमिकता गड़बड़ा गई है। यह योजना जितनी महत्वपूर्ण है, उतना ही जरूरी है- अधर में लटकी नियोजन नीति का समाधान, ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार, सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों की बहाली, और पलायन रोकने हेतु स्थानीय रोजगार के अवसर। यदि इन क्षेत्रों की उपेक्षा कर केवल एक भावनात्मक योजना को ‘मुख्य एजेंडा’ बना दिया जाए, तो राज्य का शासन-चक्र धीमा होना तय है।
योजना से आगे बढ़े झारखंड की राजनीति
“मुख्यमंत्री मंईयां सम्मान योजना” निश्चय ही एक नेक भावना का परिणाम है, लेकिन राज्य को केवल भावना से नहीं, दूरदृष्टि से भी चलाना होता है। झारखंड को आज भावनात्मक राजनीति नहीं, बल्कि नीतिगत ईमानदारी, न्यायपूर्ण संसाधन वितरण और ज़मीनी काम की जरूरत है। अगर सरकार जन-आस्था को योजनाओं की आड़ में केवल राजनीतिक निवेश में बदल देगी, तो न राज्य बचेगा, न भरोसा। राजनीति का धर्म है सबके लिए काम करना, न कि एक योजना में सब कुछ देखना। यही झारखंड की ज़रूरत है, और यही उसके भविष्य की दिशा तय करेगा।