खबर झारखंड डेस्क: हर साल की तरह इस बार भी विश्व पर्यावरण दिवस की धूम है। सड़कों पर रैलियाँ, हाथों में बैनर, और सोशल मीडिया पर #SaveEnvironment की बाढ़। लेकिन ज़रा ठहरिए, ये हरा-भरा उत्सव कितना हरा है, और कितना ढोंग? आइए, इस पर्यावरण प्रेम के तमाशे पर एक नज़र डालें।
सुबह-सुबह शहर के चौराहे पर रैली निकली। बैनर चमचमाते, प्लास्टिक के फूलों से सजे मंच, और डीजे की धूम पर “पेड़ लगाओ, धरती बचाओ” के नारे। लेकिन मज़े की बात, ये बैनर बनाने के लिए कटे पेड़ों की गिनती कोई नहीं करता। रैली खत्म, सड़क पर छोड़ आए प्लास्टिक के गिलास, बोतलें, और “पर्यावरण जागरूकता” के पंपलेट। नदियाँ पहले ही कचरे से कराह रही हैं, अब इन्हें थोड़ा और “जागरूक” कचरा मिल गया।
नेता जी मंच पर चढ़े, माइक थामा, और बोले, “हमारी सरकार पर्यावरण के लिए कटिबद्ध है!” सामने बैठे लोग तालियाँ बजाते रहे, लेकिन किसी ने नहीं पूछा कि फैक्ट्रियों से निकलता धुआँ और जंगल काटकर बनते मॉल-हाईवे क्या पर्यावरण का पाठ पढ़ा रहे हैं? पास की नदी में सीवेज बह रहा है, पर नेता जी का भाषण इतना हरा था कि लगा, अभी नदी में कमल खिल उठेंगे।
और हम, आम जनता? हमारा पर्यावरण प्रेम भी कमाल का है। सुबह रैली में नारे, दोपहर को एसी चलाकर प्लास्टिक की थैली में सब्ज़ी, और शाम को सोशल मीडिया पर “गो ग्रीन” की सेल्फी। गाड़ी का धुआँ, बिजली का बिल, और ऑनलाइन ऑर्डर का प्लास्टिक पैकेजिंग? अरे, वो तो “ज़रूरत” है, पर्यावरण के लिए थोड़ा समझौता तो बनता है!
स्कूलों में बच्चे पेड़ लगाने का नाटक करते हैं। एक पौधा लगाया, फोटो खिंचवाई, और फिर वो पौधा सूखने के लिए छोड़ दिया। अगले साल फिर नया पौधा, नई फोटो। पर्यावरण दिवस अब एक इवेंट बन गया है—जैसे दीवाली या होली, बस थोड़ा कम रंगीन और ज़्यादा दिखावटी।
सच तो ये है कि पर्यावरण हमसे नहीं, हम पर्यावरण से डरते हैं। तूफान, बाढ़, सूखा—ये सब प्रकृति की चेतावनी है, लेकिन हमारी आँखें तो स्क्रीन पर टिकी हैं। प्लास्टिक की बोतल फेंकते वक्त हमें नहीं लगता कि ये समुद्र में मछली के पेट में जाएगी। पेड़ काटते वक्त नहीं सोचते कि ऑक्सीजन का बिल कौन भरेगा।
तो इस विश्व पर्यावरण दिवस, चलिए एक संकल्प लें। नारे कम, काम ज़्यादा। प्लास्टिक कम, कपड़े की थैली ज़्यादा। गाड़ी छोड़कर साइकिल, और बिजली बचाकर सूरज की रोशनी। वरना, अगले साल रैली में नारे लगाने को साँस नहीं बचेगी, और बैनर छापने को कागज़ भी नहीं। पर्यावरण को बचाने का पहला कदम है—खुद को ढोंग से बचाना।
नोट : लेखक का व्यंग्य पर्यावरण के प्रति प्रेम से भरा है, पर सच का आईना दिखाने से नहीं चूकता।